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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन भाग-16

मानस प्रवचन भाग-16

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15258
आईएसबीएन :0

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प्रस्तुत है मानस प्रवचन माला का सोलहवाँ पुष्प - स्वामि सखा पितु मातु गुरु...

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु सीय सहित दोउ भ्रात। 2/130

भगवत्कथा रसिक श्रद्धालु श्रोता वृन्द एवं भक्तिमती देवियो! पुनः इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि जब भगवान् श्रीलक्ष्मीनारायण की सन्निधि में उनके पावन प्रांगण में भगवच्चरित्र की चर्चा की जा सके। प्रसंग के रूप में महर्षि वाल्मीकि तथा भगवान् राम का संवाद विगत कई वर्षों से आपके समक्ष चल रहा है। भगवान राम ने जब महर्षि से पूछा कि मैं कहाँ रहूँ, तब प्रारम्भ में महर्षि वाल्मीकि ने वेदान्त की भाषा में उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि पहले आप यह बता दें कि ‘आप कहाँ नहीं है तो फिर मैं आपको बता दूंगा कि आप वहाँ रहें। उसके पश्चात् महर्षि वाल्मीकि ने क्रमशः उस प्रसंग का अवतरण किया। सीधा-सा तात्पर्य है कि उन्होंने पहले वेदान्त की भाषा में उत्तर दिया, फिर भक्ति की भाषा में, तत्पश्चात् व्यावहारिक कर्म की भाषा में। तो आइये! महर्षि के वर्णन का जो तात्त्विक अभिप्राय है, उस पर एक दृष्टि डालें ।

सारे शास्त्रों की मान्यता है कि ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वत्र विद्यमान है। यद्यपि यह व्याख्या तत्त्वतः सत्य भले ही हो पर इससे व्यक्ति के अन्तःकरण की समस्याओं का समाधान नहीं होता है। यह प्रश्न गोस्वामीजी रामकथा के प्रारम्भ में करते हुए कहते हैं कि
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।
सकल जीव जग दीन दुखारी॥ 1/22/7

ऐसा ईश्वर जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में अविकारी के रूप में विद्यमान है, उसके रहते हुए भी व्यक्ति की दीनता और दरिद्रता में कोई अन्तर दिखायी नहीं देता है। | इसका समाधान देते हुए गोस्वामीजी ने नाम-वन्दना प्रसंग में रत्न का दृष्टान्त दिया। उन्होंने कहा कि केवल होना ही यथेष्ट नहीं है, अपितु उसे प्रकट करने से ही वह उपयोगी होगा। तुलसीदासजी का वाक्य यही है कि-
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें। 1/22/8

रत्न आपके पास हो या मार्ग में कहीं पड़ा हुआ मिल जाय पर अगर आपको यह लग रहा हो कि “यह एक काँच का टुकड़ा है और उसे खिलौना या शोभा के रूप में रख लें, तो रत्न पास होने पर भी उसके द्वारा आप उपयुक्त सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि कोई रत्न-पारखी जौहरी मिले जो यह बता सके कि यह काँच का टुकड़ा नहीं बल्कि कीमती रत्न है। तब आप उसका अन्तर देखेंगे। यद्यपि वही रत्न पहले भी था पर ज्ञान के अभाव में उस समय व्यक्ति को उसमें किसी विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति नहीं हो रही थी और ज्ञान होते ही हमारे जीवन में प्रसन्नता परिलक्षित होने लगी। पर समस्या एक यह भी है कि क्या केवल ज्ञान से ही समाधान हो जायगा?' क्योंकि हो सकता है, उस रत्न का मूल्य लाखों में हो, पर यदि वह व्यक्ति भूखा है तो उसे यह सोचकर भूख से छुटकारा नहीं मिलेगा कि इस रत्न का मूल्य लाख रुपये है। रत्न पास होने पर भी ठण्ड लगने पर न तो उसके शीत का निवारण होगा, न भूख मिटेगी और न दरिद्रता ही मिटेगी। | ‘राम' नाम तो बड़ा प्रचलित है। हम सब अपने मुँह से इसका उच्चारण करते हैं, पर जिस प्रकार इस नाम की महिमा का वर्णन किया गया है, क्या वह प्रभाव हमें अपने जीवन में दिखायी पड़ता है। कहने के लिये तो कह दिया गया कि -
राम राम कहि जे जमुहाहीं।
तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं॥2/193/5

जमुहाने के समय भी रामनाम ले लेने से पाप दूर चले जाते हैं, पर ऐसा होता है क्या? बहुधा देखा तो यह गया है कि जमुहाई लेने के बाद नींद भी कई बार आ जाती है। गोस्वामीजी ने तो यहाँ तक कहा है कि -
बारक राम कहत जग जेऊ।
होत तरन तारन नर तेऊ॥ 2/21674

एक बार नाम लेने वाला स्वयं तो मुक्त होता ही है, पर इसके साथ वह मुक्ति प्रदान करनेवाला भी बन जाता है। यद्यपि यह बड़ा विचित्र दावा है। पर हमें इसका भी अनुभव नहीं हो पा रहा है। किन्तु ऐसा क्यों होता है? वस्तुतः रामनाम है क्या? वैसे यदि देखें तो वर्णमाला के तीन अक्षर ‘र’, ‘अ’ तथा ‘म’ इसमें विद्यमान हैं। ये अक्षर तो साहित्य के अनेक शब्दों में विद्यमान हैं, तो फिर यह पूछा जा सकता है कि 'राम' नाम में ही ऐसी विशेषता क्यों? तब गोस्वामीजी ने रत्न का उदाहरण देते हुए कहा कि काँच के सैकड़ों चमकीले टुकड़े रखें हों और उसी में एक हीरे का टुकड़ा भी हो तो साधारण व्यक्ति को तो किसी अन्तर की अनुभूति नहीं होगी क्योंकि देखने में दोनों का रंग एक-सा है, दोनों ही चमकीले हैं। इसका भेद करने के लिये ही गोस्वामीजी ने यहाँ पर प्रकट होने की बात कही।

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